य़ह व्रत भाद्रपक्ष कि शुक्ला तृतीया को मनाया जाता है | पहले घर को साफ कर सजाये फिर पूजा के स्थान में शिव पार्वती की मूर्ति स्थापित कर उनका मंत्र से आवाहन करे फिर आचमन करे स्नान करावे और पूजन सामग्री तथा विधि अर्पण कर इसके बाद कथा सुने |अंत में बॉस के बड़े पात्र में पकवान ,वस्त्र -दक्षिणा आदि रखकर पण्डित को दे | इस प्रकार पूजन कर दूसरे दिन मूर्ति को किसी जलाशय में विसजर्न कर दे |
सूत जी बोले -----जिसके घुंघराले अलके कल्प वृक्ष के फलो से ढकी हुई है और सुंदर एवं नूतन वस्त्रो को धारण करने वाला श्री पार्वती जी कि कथा माला से जिसका मस्तक शोभायमान है , ऐसे दिगंबर रूपधारी शंकर भगवान को नमस्कार है | कैलाश पर्वत कि सुंदर चोटी पर विराजमान भगवान शंकर से गौरा ने पूछा कि हे प्रभो !आप मुझे गुप्त किसी व्रत कि कथा सुनाइये | हे स्वामिन !यदि आप मुझ पर प्रसन्न हे तो ऐसा व्रत बताने कि करपा करे जो सभी कर्मो का सार और जिनके करने में बहुत परिश्रम न करना फल भी विशेष प्राप्त हो जाये यह व्रत करने कि कृपा करे कि मे आपकी पत्नी किस व्रत के प्रभाव से हुए है | जगत स्वामी !यदि आप मध्य अवसान से रहित है आप मेरे पति किस दान पुण्य के प्रभाव से हुए है ? शंकरजी बोले --हे देवी ! सुनो मैं तुम्हे वह उत्तम व्रत कहता हूँ जो परम गोप्य एवं सर्वस्य है | यह व्रत जैसे कि तारो में चंद्रमा , ग्रहो में सूरज वर्णो में ब्राहाण , सभी देवताओ में विष्णु ,नदियो में जैसे गंगा ,पुराणो में महाभारत ,वेदो में सामवेद , इन्द्रियो में मन श्रेष्ठ समझे जाते है वैसे ही पुराणो तथा वेदो का सर्वस्व हो इस व्रत को शास्त्रो ने कहा है उसे एकाग्र मन से श्रवण करो |इसी व्रत के प्रभाव से ही तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है | तुम मेरी परम प्रिय हो इसी कारण यह सारा व्रत मैं तुम्हे सुनाता हूँ| भादो का महीना हो शुक्लपक्ष कि तृतीया तिथि हो और हस्त नक्षत्र हो उस दिन व्रत के अनुष्ठान से स्त्री और कन्याओ के सभी पाप भस्म हो जाते है |
गौरी! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया था. इस अवधि में तुमने अन्न ना खाकर केवल हवा का ही सेवन के साथ तुमने सूखे पत्ते चबाकर काटी थी. माघ की शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश कर तप किया था. वैशाख की जला देने वाली गर्मी में पंचाग्नी से शरीर को तपाया. श्रावण की मुसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न जल ग्रहन किये व्यतीत किया. तुम्हारी इस कष्टदायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ होते थे. तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराज़गी को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे.
तुम्हारे पिता द्वारा आने का कारण पूछने पर नारदजी बोले – ‘हे गिरिराज! मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ. आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर वह उससे विवाह करना चाहते हैं. इस बारे में मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ.’ नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले- ‘श्रीमान! यदि स्वंय विष्णुजी मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है. वे तो साक्षात ब्रह्म हैं. यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर कि लक्ष्मी बने.’
नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया. परंतु जब तुम्हे इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हारे दुःख का ठिकाना ना रहा. तुम्हे इस प्रकार से दुःखी देखकर, तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछने पर तुमने बताया कि – ‘मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है. मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ. अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा.’ तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी. उसने कहा – ‘प्राण छोड़ने का यहाँ कारण ही क्या है? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिये. भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करे. सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो भगवान् भी असहाय हैं. मैं तुम्हे घनघोर वन में ले चलती हूँ जो साधना थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हे खोज भी नहीं पायेंगे. मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे.’
तुमने ऐसा ही किया. तुम्हारे पिता तुम्हे घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए. वह सोचने लगे कि मैंने तो विष्णुजी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया है. यदि भगवान् विष्णु बारात लेकर आ गये और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा, ऐसा विचार कर पर्वतराज ने चारों ओर तुम्हारी खोज शुरू करवा दी. इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं. भाद्रपद तृतीय शुक्ल को हस्त नक्षत्र था. उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया. रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया. तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर मांगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा – ‘मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ. यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिये. ‘तब ‘तथास्तु’ कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया.
प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया. उसी समय गिरिराज अपने बंधु – बांधवों के साथ तुम्हे खोजते हुए वहाँ पहुंचे. तुम्हारी दशा देखकर अत्यंत दुःखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पुछा. तब तुमने कहा – ‘पिताजी, मैंने अपने जीवन का अधिकांश वक़्त कठोर तपस्या में बिताया है. मेरी इस तपस्या के केवल उद्देश्य महादेवजी को पति के रूप में प्राप्त करना था. आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ. चुंकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय कर चुके थे, इसलिये मैं अपने आराध्य की तलाश में घर से चली गयी. अब मैं आपके साथ घर इसी शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह महादेवजी के साथ ही करेंगे. पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार करली और तुम्हे घर वापस ले गये. कुछ समय बाद उन्होने पूरे विधि – विधान के साथ हमारा विवाह किया.”
भगवान् शिव ने आगे कहा – “हे पार्वती! भाद्र पद कि शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका. इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूँ.” भगवान् शिव ने पार्वतीजी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा.
और जो नारी भादो के शुक्लपक्ष कि तृतीया को यह व्रत नही करती आहार कर लेती है |वह सात जन्मो तक बंध्या रहती है एंव अगले जन्म मे विधवा हो जाती है | दरिद्रा रुपी अनेको कष्ट भोगना पड़ता है | उसे पुत्र शोक छोड़ता ही नही और जो उपवास नही करती वह घोर नरक मे जाती है फल खाने से बंदरी होती है जल पि लेने से जोक होती है हे देवी जो स्त्री इस प्रकार से सेवा व्रत किया करती है वह तुम्हारे समान ही अपने पतिके साथ पृथ्वी पर अनेको बार विहार करती है इसकी कथा श्रवण करने से हजार अश्वमेघ एवं सो बाजपेयी का फल मिलता है |
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