Saturday, August 27, 2016

गणेश जी की कहानी


एक ब्राह्मण था उसकी दो लडकियाँ थी । एक का नाम सीता दूसरी का गीता दोनो गाँव में ही थी सीता को एक लडका था और गीता को एक लडकी थी वह लडकी रोज रोती तो सीता ने गीता से कहा तू गणेश जी की इतनी पूजा करे हैं फिर भी थारी छोरी रोज परेशान करे हैं और सीता बडी भक्ति भाव से गणेश जी की पूजा करती एक दिन गीता ने सीता का लडका के छिपा दियो और चुपचाप घर में जाकर बैठ गई ।
   इधर सीता ने अपना लडका के खूब ढूढा और रोती रोती गणेश जी के पास गई और बोली की महाराज मेरा लडका खो गया आप लाकर के देवो मैं आपकी बहुत सेवा पूजा बड़ा ध्यान से करती थी अब गणेश जी बोले कि अगर इसका लड़का के अपन नही ढूंढांगा तो दुनिया में अपने को कौन मानेगो । गणेश जी ने झटपट से सीता के  लड़के को ढूंढ लिया और लाकर सामने खडा कर दिया।

 अब गीता सीता का पाँव पडने लगी और माफी मांगी हैं गणेशजी महाराज उसके टूटया जैसा सबके टूटजो कहता सुनता हुकारा भरता

Monday, June 20, 2016

सत्यनारायण भगवान व्रत कथा :-

पुजन सामिग्री

कॆलॆ कॆ पत्ते पांच फल, कलश, पंचरत्न, चावल , कपूर , धुप , अगरबत्ती , पुष्पॊ की माला, श्रीफल , पान का पत्ता, नैवैध्द, भगवान की प्रतिमा, वस्त्र, तुलसी कॆ पत्तॆ, प‍चामृत ( दुध , घी , शहद , दही, चिनी ) 

पुजा विधी

श्री सत्यनारायण व्रत और पूजन पूर्णिमा या संक्रांति के दिन स्नान कर  माथे पर तिलक लगाएँ और शुभ मुहूर्त में पूजन शुरू करें। आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके सत्यनारायण भगवान का पूजन करें। इसके पश्चात्‌ सत्यनारायण व्रत कथा का  श्रवण करें।

सत्यनारायण भगवान व्रत कथा :- (1)

एक समय नैमिषारण्य तीर्थ मॆं शौनक आदी अट्र्ठासी हजार ऋषियॊं नॆ  श्री सुतजी सॆ पुछा ‍‍ हॆ प्रभु | इस घॊर कलियुग मॆं वॆद विद्या रहित मनुष्यॊं कॊ प्रभु भक्ती किस प्रकार मिलॆगी तथा उनका उद्वार कैसॆ हॊगा ? इसलियॆ मुनिश्रॆष्ठॊ ! कॊइ व्रत बताइए जिससॆ थॊड़ॆ समय मॆं पुण्य प्राप्त हॊवॆ तथा मनवांछीत फल मिलॆ , उस कथा कॊ सुननॆ की हमारी हार्दिक इच्छा है | श्री सुत जी बॊलॆ _ हॆ वैष्णवॊं मॆं पुज्य ! आप सबनॆ सर्व प्राणीयॊं कॆ हित की बात पूछी  है | अब मैं उस श्रॆष्ठ व्रत कॊ आप लॊगॊ कॊ सुनाता हुँ , जिस व्रत कॊ नारद जी नॆ श्रीनारायण सॆ पुछा था और श्रीनारायण नॆ मुनिश्रॆष्ठ सॆ कहा था , सॊ ध्यान सॆ सुनॆं _

एक समय यॊगीराज नारद जी दुसरॊं कॆ हित की इच्छा सॆ अनॆक लॊंकॊं मॆं घुमतॆ हुए मृत्युलॊक मॆं आ पहुंचॆ | यहाँ अनॆक यॊनियॊं मॆं जन्मॆ हुए प्राय: सभी मनुष्यॊं कॊ अपनॆ कर्मॊ कॆ द्वारा अनॆक दुखो  सॆ पीड़ीत दॆखकर सॊचा, किस व्रत  के  करनॆ सॆ इनकॆ दुखॊं का नाश हॊ सकॆगा | एसा मन मॆ सॊचकर मुनिश्रॆष्ठ नारद जी विष्णु लॊक कॊ गयॆ | वहाँ भगवान विष्णु कॊ दॆखकर नारद जी स्तुती करनॆ लगॆ | हॆ भगवान ! आप अत्यन्त शक्ती सम्पन्न हैं | मन और वानी भी आपकॊ नहीं पा सकती, आपका आदि मध्य और अन्त नहीं है | निर्गुण स्वरुप सृष्टि कॆ कारण भुत व भक्तॊ कॆ दुखो कॊ नष्ट करनॆ वालॆ हॊ | आपकॊ मॆरा नमस्कार है | नारद जी सॆ इस प्रकार की स्तुती सुनकर विष्णु भगवान बॊलॆ कि हॆ  मुनि श्रेष्ठ आपकॆ मन मॆं क्या है ? आपका यहाँ किस काम कॆ लियॆ आगमन हुआ है नि:संकॊच कहॆं | तब नारद  बॊलॆ मृत्युलॊक मॆ सब मनुष्य जॊ अनॆक यॊनीयॊं मॆ पैदा हुए हैं,अपनॆ कर्मॊ कॆ कारण अनॆक प्रकार कॆ दुखॊ सॆ दुखी हॊ रहॆ हैं | हॆ नाथ ! मुझ पर दया करॆं और मुझॆ कुछ उपाय बतायॆं  ?  श्री   विष्णु जी बॊलॆ जिस काम सॆ मनुष्य मॊह सॆ छुट जाता है वह मैं कहता हुँ, सुनॊ बहुत पुण्य दॆनॆ वाला , स्वर्ग तथा मृत्यु लॊक दॊनॊ मॆं दुर्लभ श्री सत्यनारायण का यह व्रत है| आज मैं प्रॆम वश हॊकर तुमसॆ कहता हुं सत्यनारायण भगवान का यह व्रत अच्छी तरह विधि पुर्वक सम्पन्न करकॆ मनुष्य तुरन्त ही यहां सुख भॊगकर मरनॆ पर मोक्ष   प्राप्त हॊता है |

श्री विष्णु भगवान कॆ वचन सुनकर नारद मुनी बॊलॆ कि उस व्रत का फल क्या है ? क्या विधान है और किसनॆ यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए ? हॆ भगवान इसकॊ विस्तार सॆ बताएं | भगवान बॊलॆ हॆ नारद दुख शॊक आदि कॊ दुर करनॆ वाला  धन धान्य बढानॆ वाला सौभाग्य तथा सन्तान कॊ दॆनॆ वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी दिलानॆ वाला है भक्ति कॆ साथ किसी भी दिन सन्ध्या कॆ समय  ब्राह्मणों बन्धुऒ कॆ साथ धर्म परायण हॊकर पुजा करॆ | भक्ति भाव सॆ नैवेद्य भगवान कॊ अर्पण करॆ तथा बन्धुऒ सहित  ब्राह्मणों  को   भॊजन करावॆ तत्पश्चात् स्वयं भॊजन करॆ | अन्त मॆ भजन आदि का आचरण कर भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत  करें  | इस तरह व्रत करनॆ पर मनुष्य की सभी इच्छा अवश्य पूरी हॊती है | विशॆष कर इस धॊर कलयुग मॆ इससॆ सरल उपाय कॊई नही है|

श्री विष्णु ने कहा- 'हे नारद! दुःख-शोक आदि दूर करने वाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है। भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्री सत्यनारायण भगवान की संध्या के समय ब्राह्मणों और बंधुओं के साथ धर्म परायण होकर पूजा करे। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, शहद, घी, शकर , दूध और गेहूँ का आटा लें ।
इन सबको भक्तिभाव से भगवान को अर्पण करें। बंधु-बांधवों सहित ब्राह्मणों को भोजन कराएँ। इसके पश्चात स्वयं भोजन करें। रात्रि में नृत्य-गीत आदि का आयोजन कर श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करें। कलिकाल में मृत्युलोक में यही एक लघु उपाय है, जिससे अल्प समय और अल्प धन में महान पुण्य प्राप्त हो सकता है।

सत्यनारायण व्रत कथा (2)

सूतजी ने कहा- 'हे ऋषियों! जिन्होंने पहले समय में इस व्रत को किया है। उनका इतिहास कहता हूँ आप सब ध्यान से सुनें। सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मण भूख और प्यास से बेचैन होकर पृथ्वी पर घूमता रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री विष्णु भगवान ने ब्राह्मण को देखकर एक दिन बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर आदर के साथ पूछा-'हे विप्र! तुम नित्य ही दुःखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ।'

दरिद्र ब्राह्मण ने कहा- 'मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ। हे भगवन यदि आप इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय जानते हों तो कृपा कर मुझे बताएँ।' वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किए श्री विष्णु भगवान ने कहा- 'हे ब्राह्मण! श्री सत्यनारायण भगवान मनवांछित फल देने वाले हैं। इसलिए तुम उनका पूजन करो, इससे मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।' दरिद्र ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान अंतर्ध्यान हो गए।

जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बताया है, मैं उसको अवश्य करूँगा, यह निश्चय कर वह दरिद्र ब्राह्मण घर चला गया। परंतु उस रात्रि उस दरिद्र ब्राह्मण को नींद नहीं आई। अगले दिन वह जल्दी उठा और श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय कर भिक्षा माँगने के लिए चल दिया। उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला, जिससे उसने पूजा का सामान खरीदा और घर आकर अपने बंधु-बांधवों के साथ भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया।

इसके करने से वह दरिद्र ब्राह्मण सब दुःखों से छूटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हो गया। तभी से वह विप्र हर मास व्रत करने लगा। इसी प्रकार सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो शास्त्र विधि के अनुसार करेगा, वह सब पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। आगे जो मनुष्य पृथ्वी पर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करेगा वह सब दुःखों से छूट जाएगा। इस तरह नारदजी से सत्यनारायण भगवान का कहा हुआ व्रत मैंने तुमसे कहा। हे विप्रों! अब आप और क्या सुनना चाहते हैं, मुझे बताएँ?

ऋषियों ने कहा- 'हे मुनीश्वर! संसार में इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया यह हम सब सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है।'

श्री सूतजी ने कहा- 'हे मुनियों! जिस-जिस प्राणी ने इस व्रत को किया है उन सबकी कथा सुनो। एक समय वह ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बंधु-बांधवों के साथ अपने घर पर व्रत कर रहा था। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा व्यक्ति वहाँ आया। उसने सिर पर रखा लकड़ियों का गट्ठर बाहर रख दिया और विप्र के मकान में चला गया।

प्यास से व्याकुल लकड़हारे ने विप्र को व्रत करते देखा। वह प्यास को भूल गया। उसने उस विप्र को नमस्कार किया और पूछा- 'हे विप्र! आप यह किसका पूजन कर रहे हैं? इस व्रत से आपको क्या फल मिलता है? कृपा करके मुझे बताएँ।'
ब्राह्मण ने कहा- 'सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत है। इनकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई।'
विप्र से इस व्रत के बारे में जानकर वह लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। भगवान का चरणामृत ले और भोजन करने के बाद वह अपने घर को चला गया।
अगले दिन लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से भगवान सत्यनारायण का उत्तम व्रत करूँगा। मन में ऐसा विचार कर वह लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वहाँ गया। उस दिन उसे उन लकड़ियों के चौगुने दाम मिले।
वह बूढ़ा लकड़हारा अतिप्रसन्न होकर पके केले, शकर, शहद, घी, दुग्ध, दही और गेहूँ का चूर्ण इत्यादि श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत की सभी सामग्री लेकर अपने घर आ गया। फिर उसने अपने बंधु-बांधवों को बुलाकर विधि-विधान के साथ भगवान का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन-पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुंठ को चला गया।'

श्री सूतजी ने कहा- 'हे श्रेष्ठ मुनियों! अब एक और कथा कहता हूँ। पूर्वकाल में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देवस्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी सुंदर और सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया।

उस समय वहाँ साधु नामक एक वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था। राजा को व्रत करते देख उसने विनय के साथ पूछा- 'हे राजन! भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। कृपया आप मुझे भी बताइए।' महाराज उल्कामुख ने कहा- 'हे साधु वैश्य! मैं अपने बंधु-बांधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ।' राजा के वचन सुनकर साधु नामक वैश्य ने आदर से कहा- 'हे राजन! मुझे भी इसका सब विधान बताइए। मैं भी आपके कथानुसार इस व्रत को करूँगा। मेरे यहाँ भी कोई संतान नहीं है। मुझे विश्वास है कि इससे निश्चय ही मेरे यहाँ भी संतान होगी।'

राजा से सब विधान सुन, व्यापार से निवृत्त हो, वह वैश्य खुशी-खुशी अपने घर आया। वैश्य ने अपनी पत्नी लीलावती से संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और प्रण किया कि जब हमारे यहाँ संतान होगी तब मैं इस व्रत को करूँगा।
एक दिन उसकी पत्नी लीलावती सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर गर्भवती हो गई। दसवें महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। कन्या का नाम कलावती रखा गया। इसके बाद लीलावती ने अपने पति को स्मरण दिलाया कि आपने जो भगवान का व्रत करने का संकल्प किया था अब आप उसे पूरा कीजिए।

साधु वैश्य ने कहा- 'हे प्रिय! मैं कन्या के विवाह पर इस व्रत को करूँगा।' इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह व्यापार करने चला गया। काफी दिनों पश्चात वह लौटा तो उसने नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री को खेलते देखा। वैश्य ने तत्काल एक दूत को बुलाकर कहा कि उसकी पुत्री के लिए कोई सुयोग्य वर की तलाश करो।

साधु नामक वैश्य की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुँचा और उनकी लड़की के लिए एक सुयोग्य वणिक पुत्र ले आया। वणिक पुत्र को देखकर साधु नामक वैश्य ने अपने बंधु-बांधवों सहित प्रसन्नचित्त होकर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया। वैश्य विवाह के समय भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना भूलगया। इस पर श्री सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने वैश्य को श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा।
अपने कार्य में कुशल साधु नामक वैश्य अपने जामाता सहित नावों को लेकर व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नगर में गया। दोनों ससुर-जमाई चंद्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे। एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित एक चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था।

राजा के दूतों को अपने पीछे आते देखकर चोर ने घबराकर राजा के धन को उसी नाव में चुपचाप रख दिया, जहाँ वे ससुर-जमाई ठहरे थे। ऐसा करने के बाद वह भाग गया। जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो ससुर-जामाता दोनों को बाँधकर ले गए और राजा के समीप जाकर बोले- 'हम ये दो चोर पकड़कर लाए हैं। कृपया बताएँ कि इन्हें क्या सजा दी जाए।'

राजा ने बिना उन दोनों की बात सुने ही उन्हें कारागार में डालने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार राजा की आज्ञा से उनको कठिन कारावास में डाल दिया गया तथा उनका धन भी छीन लिया गया। सत्यनारायण भगवान के श्राप के कारण साधु वैश्य की पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भी घर पर बहुत दुखी हुई। उनके घरों में रखा धन चोर ले गए।

एक दिन शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुखित हो भोजन की चिंता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उसने ब्राह्मण को श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते देखा। उसने कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से पूछा- 'हे पुत्री! तू अब तक कहाँ रही व तेरे मन में क्या है?' कलावती बोली- 'हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायरण भगवान का व्रत होते देखा है।'
कलावती के वचन सुनकर लीलावती ने सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी की। उसने परिवार और बंधुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूूजन व व्रत किया और वर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र ही घर वापस लौट आएँ। साथ ही भगवान से प्रार्थना की कि हम सबका अपराध क्षमा करो।

श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए। उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- 'हे राजन! जिन दोनों वैश्यों को तुमने बंदी बना रखा है, वे निर्दोष हैं, उन्हें प्रातः ही छोड़ दो अन्यथा मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा।' राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए।

प्रातःकाल राजा चंद्रकेतु ने सभा में सबको अपना स्वप्न सुनाया और सैनिकों को आज्ञा दी कि दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाया जाए। दोनों ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा ने उनसे कहा- 'हे महानुभावों! तुम्हें भावीवश ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है। अब तुम्हें कोई भय नहीं है, तुम मुक्त हो।' ऐसा कहकर राजा ने उनको नए-नए वस्त्रा भूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया था उससे दूना लौटाकर आदर से विदा किया। दोनों वैश्व अपने घर को चल दिए।

श्री सूतजी ने आगे कहा- 'वैश्य और उसके जमाई ने मंगलाचार करके यात्रा आरंभ की और अपने नगर की ओर चल पड़े। उनके थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर दंडी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने उससे पूछा- 'हे साधु! तेरी नाव में क्या है?'
अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला- 'हे दंडी ! आप क्यों पूछते हैं? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल और पत्ते भरे हैं।' वैश्य का कठोर वचन सुनकर दंडी वेषधारी श्री सत्यनारायण भगवान ने कहा- 'तुम्हारा वचन सत्य हो!' ऐसा कहकर वे वहाँ से कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए।

दंडी महाराजा के जाने के पश्चात वैश्य ने नित्यक्रिया से निवृत्त होने के बाद नाव को उँची उठी देखकर अचंभा किया तथा नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्च्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। मूर्च्छा खुलने पर अत्यंत शोक प्रकट करने लगा। तब उसके जामाता ने कहा- 'आप शोक न करें। यह दंडी महाराज का श्राप है, अतः उनकी शरण में ही चलना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी।'
जामाता के वचन सुनकर वह साधु नामक वैश्य दंडी महाराज के पास पहुँचा और भक्तिभाव से प्रणाम करके बोला- 'मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे उसके लिए मुझे क्षमा करें।' ऐसा कहकर वैश्य रोने लगा। तब दंडी भगवान बोले- 'हे वणिक पुत्र! मेरी आज्ञा से तुझे बार-बार दुःख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है।'

साधु नामक वैश्य ने कहा- 'हे भगवन! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जान पाते, तब मैं अज्ञानी भला कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइए, मैं अपनी सामर्र्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मेरी रक्षा करो और पहले के समान मेरी नौका को धन से पूर्ण कर दो।'
उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर श्री सत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वर देकर अंतर्ध्यान हो गए। तब ससुर व जामाता दोनों ने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है। फिर वह भगवान सत्यनारायण का पूजन कर जामाता सहित अपने नगर को चला।
जब वह अपने नगर के निकट पहुँचा तब उसने एक दूत को अपने घर भेजा। दूत ने साधु नामक वैश्य के घर जाकर उसकी पत्नी को नमस्कार किया और कहा- 'आपके पति अपने दामाद सहित इस नगर के समीप आ गए हैं।' लीलावती और उसकी कन्या कलावती उस समय भगवान का पूजन कर रही थीं।दूत का वचन सुनकर साधु की पत्नी ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन पूर्ण किया और अपनी पुत्री से कहा- 'मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ, तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना।' परंतु कलावती पूजन एवं प्रसाद छोड़कर अपने पति के दर्शनों के लिए चली गई।

प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव रुष्ट हो गए फलस्वरूप उन्होंने उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न देख रोती हुई जमीन पर गिर पड़ी। नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोती हुई देख साधु नामक वैश्य दुखित हो बोला- 'हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करो।'
उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव भगवान प्रसन्न हो गए। आकाशवाणी हुई- 'हे वैश्य! तेरी कन्या मेरा प्रसाद छोड़कर आई है इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है। यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसका पति अवश्य मिलेगा।'
आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद खाया और फिर आकर अपने पति के दर्शन किए। तत्पश्चात साधु वैश्य ने वहीं बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। वह इस लोक का सुख भोगकर अंत में स्वर्गलोक को गया

श्री सूतजी ने आगे कहा- 'हे ऋषियों! मैं एक और भी कथा कहता हूँ। उसे भी सुनो। प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भगवान सत्यदेव का प्रसाद त्याग कर बहुत दुःख पाया। एक समय राजा वन में वन्य पशुओं को मारकर बड़ के वृक्ष के नीचे आया।
वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति भाव से बंधु-बांधवों सहित श्री सत्यनारायण का पूजन करते देखा, परंतु राजा देखकर भी अभिमानवश न तो वहाँ गया और न ही सत्यदेव भगवान को नमस्कार ही किया। जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उनके सामने रखा तो वह प्रसाद त्याग कर अपने नगर को चला गया।
नगर में पहुँचकर उसने देखा कि उसका सब कुछ नष्ट हो गया है। वह समझ गया कि यह सब भगवान सत्यदेव ने ही किया है। तब वह उसी स्थान पर वापस आया और ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यनारायण की कृपा से सब-कुछ पहले जैसा ही हो गया और दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को चला गया।
जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा श्री सत्यनारायण भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी और बंदी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। संतानहीन को संतान प्राप्त होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में वह बैकुंठ धाम को जाता है।
जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा भी सुनिए। शतानंद नामक ब्राह्मण ने सुदामा के रूप में जन्म लेकर श्रीकृष्ण की भक्ति कर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम के महाराज, राजा दशरथ बने और श्री रंगनाथ का पूजन कर बैकुंठ को प्राप्त हुए।

साधु नाम के वैश्य ने धर्मात्मा व सत्यप्रतिज्ञ राजा मोरध्वज बनकर अपनी देह को आरे से चीरकर दान करके मोक्ष को प्राप्त हुआ। महाराज तुंगध्वज स्वयंभू मनु हुए? उन्होंनेबहुत से लोगों को भगवान की भक्ति में लीन कर मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भील अगले जन्म में गुह नामक निषाद राजा हुआ, जिसने भगवान राम के चरणों की सेवा कर मोक्ष प्राप्त किया।

Thursday, June 9, 2016

हरियाली अमावस्या की कहानी


एक राजा था उसके एक बेटा बहू था बहू ने एक दिन मिठाई चोर कर खाली और नाम चूहा को लीयो ये सुनकर चूहा को गुस्सा आया उसने मन मे विचार करा की  अपन चोर को राजा के सामने लेकर आयेगे एक दिन राजा के घर में मेहमान आये थे और वे राजा के कमरे में सोये थे चूहा ने रानी के कपडे ले जाकर मेहमान के पास रख दिये सुबह उठकर सब लोग आपस में बात करने लगे की छोटी रानी के कपडे मेहमान के कमरे में मीले ये बात जब राजा ने सुनी तो छोटी रानी को घर से निकाल दिया वो रोज शाम को दिया जलाती और जवारा बोती थी पूजा करती गुडधानी का प्रशाद बाँटती थी एक दिन राजा शिकार करके उधर से निकले तो राजा की नजर उस रानी पर पडी । राजा ने घर आकर कहा की आज तो झाड के नीचे चमत्कारी चीज हैं अपन झाड के ऊपर जाकर बैठा देखो आपस में बात करे आज कोन कोन क्या क्या खाया ,कैसी कैसी पूजा करी । उस में से एक दियो बोला अपके मेरे जान पहचान  के अलावा कोई नही है आपने तो मेरी पूजा भी नही करी और भोग भी नही लगायो  बाकी के सब दिये बोले एसी क्या बाात हुई तब दियो बोला मे राजा के घर का हूँ उस राजा की एक बहू थी वह एक बार मिठाई चोर कर खाली और चूहा को नाम लें लीयो जब चूहा को गुस्सा आया तो रानी के कपडे मेहमान के कमरे में रख दिये राजा ने रानी को घर से निकाल दिया वो रोज मेरी पूजा करती थी भोग लगाती थी उसने रानी को आशीर्वाद दियो कहा भी रहे सुखी रहे  फिर सब लोग झाड पर से उतर घर आये और कहा की रानी का कोई दोष नही था राजा ने रानी को घर बुलाया और सुख से रहने लगे भूल चूक माफ करना ।

Wednesday, June 1, 2016

हरियाली अमावस्या की विधी


यह आधा सावन की अमावस्या के दिन आती है

चिडियाँ की कहानी

एक चिडियाँ थी, एक चिडो था चिडियाँ के पास चावल था और चिडो के पास दाल थी दोनो ने मिलकर खीचडी़ बनाई चिडियाँ बोली की खीचडी़ ठंडी़ होवे जब तक मै पानी भरकर लाऊं जेसे ही चिडियाँ पानी भरने गई और चिडो ने सब खीचडी़ खाली और सो गया इतने में चिडियाँ पानी भरकर आई और चिडो से बोली भाई चल अपन खीचडी़ खाये पर चिडो़ ने तो पहले ही सब खीचडी़ खाली थी उसने कहा मे नही खा रहा मेरे तो पेट मे दर्द है तु ही खाले अब जैसे ही चिडियाँ ने बर्तन मे देखा तो खीचडी़ नही थी उसने पुछयो तो झूठ बोल दियो की मेने तो नही खाई तब चिडियाँ ने कच्चा सूत को कुआँ में झूला डाला और बोली की अगर तू ने खीचडी़ खाई होगी तो तू कुआँ में गिरेगो और मैने खाई होगी तो में कुआँ में गिरूगी
अब दोनो झुलने गये । आपस में बोले कि तू पहले झूल तो पहले चिडियाँ झुलने गई तोझुल कर बाहर आ गई अब चिडो झुलने लग्यो  और कुआँ में गिर गयो अब चिडियाँ ने चिडो से कहा तुने झूठ बोला इसका नतीजा है चिडो ने कहा अब मै कभी झूठ नही बोलुगाअब चिडियाँ ने चिडो को बहार निकाला और दोनो खुशी खुशी रहने लगे  इसलिए कभी भी चोर कर और झुठ बोलकर नही खानो चाहिए


चिडियाँ छठ व्रत की विधी

यह व्रत कवाँरी लडकी करती हैं चिडियाँ से आटा झूठा करवा कर उसका चूरमो बनाते हैं दीवाल पर चिडियाँ  माडँकर उसकी पूजा करते है लडडू को कल्पनो निकालकर ब्राहाम्ण को देवे और ब्यावला साल की लड़की भी इस व्रत को करती हैं वह दिन भर निराहार रहती हैं नारियल ,शक्कर और रूपये से कल्पनो निकालकर सासू को देवे हैं

Monday, May 16, 2016

बड सावित्री की कहानी

एक राजा था उसकी कोई सन्तान नही थी उसने पण्डित को बुलाकर पुछयो की म्हारे सन्तान नही जीवे  आप ऐसो उपाय बताओ जिससे म्हारे सन्तान जीने लग जाय जब पण्डित ने कहा तुम्हारे भाग्य में कन्या लिखी हैं पर वह शादी के बाद विधवा हो जायेगी जब राजा ने कहा कई भी होवे पर मेरा बाँछपन तो मिट जायेगा

बाद में खूब यज्ञ करवाया तो कन्या का जन्म हुआ का नाम सावित्री रखा जब सावित्री बडी हुई तो उसका ब्याह सत्यवान के साथ कर दिया सावित्री के सास ससुर अंधे थे सावित्री उनकी बहुत सेवा करती थी सत्यवान जंगल में लकडी काट कर लाता अब सावित्री को मालुम थी की मे शादी के बाद विधवा हो जाऊगी उसने सत्यवान से विनती करी की मे भी आपके साथ लकडी काटने चलूगी जब सत्यवान ने कहा की तु मेरे साथ चलेगी तो मेरे अँधे माँ बाप की  सेवा कोन करेगा सावित्री जल्दी से सास ससुर के पास गई और बोली की मे भी जंगल देखने चली जाऊ तो उन्होने कहा हाँ चली जा जंगल में सावित्री लकडी काट ने लगीऔर सत्यवान झाड के नीचे सो गया उस पेड के नीचे एक साँप रहता था उसने सत्यवान को काट लीया अब वा अपने पति को गोदी मे लेकर रोने लगी थोडी देर में महादेव पार्वती उधर से निकले वा उनका पाँव में पड गई और बोली की आप म्हारे पति को जीवित करो जब वे बोल्या की आज बड सावित्री अमावस्या हैं तू बड की पूजा कर तेरा पती जीवित हो जायेगा उसने बड की पूजा करी इतने में धरमराज का दूत सावित्री ते पती को लेजाने लगे तो उसने उनके  पॉव पकड लीयो और धरमराज बोल्या की वरदान माँग सावित्री ने कहा मेरे माँ बाप के पुत्र नही है धरमराज बोल्या की पुत्रहो जायेगे फिर सावित्री बोली की म्हारे सास ससुर अंधे हैतो उनकी आँखे आ गई और  धरमराज बोल्या सदा सुहागन हो तो वो बोली की आप म्हारे पती को तो लेजा रहे हो धरमराज बोल्या की सती थारे सुहाग दियो है और तुने  बड अमावस्या की पूजा करी इसलिये तेरा पती जीवित हो गया  अब उसने पूरे गाँव ने  ढिढोरा पिटवाया की जेठ माह की जो अमावस्या आती है उसको बड की पूजा करनी चाहिए और उस दिन बड के पत्ते के गहने बनाकर पहनने चाहिए धरमराज जी ने सावित्री को सुहाग दियो वेसे सबके देवे

बड सावित्री की विधी


यह त्योह्रर जैठ माह मे जो अमावस्या आती है उसको बड सावित्री व्रत  कहते है इसमे बड की पूजा करते है

Thursday, February 25, 2016

बैशाख की कहानी

एक पति पत्नि था ,बहुत गरीब था, लकडी बेचकर अपना पेट भरता था। बैशाख का महिना आया सब औरते बैशाख नहाने लगी तो वो रोज सबके देखा देख बैशाख नहाने लगी वो रोज लकडी के गठठ्रर मै से एक लकडी ऩिकालकर अलग रख देती रोज नहा कर आती । आंवला ,पीपल सींचती । एेसा करते करते महीना पूरा हो गया अब वा नहाकर भगवान का नाम लीयो और लकडी बेचने गई तो वे लकडी चंदन की हो गई अब गाँव का राजा बोल्या लकडी का क्या भाव हैं वह बोली आप जो देओगा वही लेलुगी मेरे को तो पाँच ब्राहाम्ण जिमाना है इतनो चाहिए ।राजा ने अपवा नौकर के साथ पाँच ब्राहाम्ण जिमे इतनो सीधो भेज दियोतब उसने लडडू बनाया ब्राहाम्ण के जीमाया,दक्षिणा दी तो ब्राहाम्ण ने आशीर्वाद दियो और झोपडी से महल बनगया ,चौका छतीस प्रकार का पकवान बव गया

     उसको आदमी लकडी बेचकर आयो तो झोपडी दिखी नही जब पडोसन से पुछयो तो वा बोली ये थारो ही घर हैं इतना मै वा औरत आई और बोली ये अपनो ही घर हैं फिर उसने सारी बात बताइ अब दोनो पति पत्नि आराम से जीमे और भजन पुजन करे है अधुरी होय तो पूरी करजो पूरी होय तो मान करजो

बैशाख माह की विधी


बैशाख के महिने मै स्नान का बहुत महत्व हैं । इसकी कहानी रोज सुनना चाहिए, जो का सतू बनाकर अवशय खाना चाहिए । ब्राहाण के यहाँ पानी  भरवाना , जगह जगह पर प्याऊ लगवानी चाहिए |

Wednesday, February 24, 2016

हनुमानजी की कहानी

एक औरत रोज हनुमानजी के मंदिर जाया करती, साथ मे साग रोटी और चूरमा ले जाती वह हनुमानजी से कहती लाल लंगोटो ,कांधे सोटो लेयो हनुमानजी खाओ रोटो अब उस साहूकारणी के बेटा को ब्याह हो गयो बहू घर में आ गई । बहू ने सासुजी से पुछयो की आप रोज रोटी को चूरमो बनाकर कहा ले जाओ । सासू बोली की हनुमानजी के मंदिर मे , बहू बोली की आप रोज रोज मंदिर नही जा सको जब सासू ने रोटी पानी कुछ भी नही खायो जब तक मंदिर नही गई उसको तो रोज को नीयम थो अब पाँच दिन हो गया सासू उठी नही । जब हनुमानजी आया और बोल्या बुढिया माई क्यो सोई है ।उठ उठ लाल लंगोटो कांधे सोटो हाथ मै रोटो उठ कर दर्शन कर ले और रोटी खाले । बुढिया माई बोली की आज तो आप दे जाओगा काल कोन देवेगो। जब हनुमानजी ने कीयो की म्हेतो रोज दे जाऊंगा जब उठी दर्शन करया और चूरमो को भोग लगायो और रोटी खाई बुढिया माई के कमरा मै तो हनुमानजी ने सारा ही ठाट बाट कर दियो उसके बहार निकलने का ही काम नही

    उधर बहू का घर में बहुत गरीबी हो गई खाने को दाना नही एक दिन बहू के मन मे विचार आयो की सासू के कुछ भी खाने को नही दियो जाकर देखू तो सही केसी दशा है जाकर देखा तो सासू के वहा पर हनुमानजी का मंदिर है रोज चूरमो बनाकर भोग लगांवे और अच्छी तरह से जीमे है और आनंद से रेवे  बहू सासू के पॉव पड़ गई कि मैने आपके बहुत दुख दियो अब मेभी रोज हनुमानजी के मंदिर मे जाऊगी और चूरमो को भोग लगाऊगी । हे  हनुमानजी उस सासू के टूटया जैसा सबके टूटजो कहता सुनता हुकारा भरता ।

Sunday, February 21, 2016

नृसिंह भगवान की कथा

नृसिंह अवतार की कथा सतयुग की है । हिरण्य कश्यप और हरणायक्ष नाम के दो राजा थे उन्होने अपने पाप से राक्षस की योनी में जन्म लिया अब एक हरणायक्ष राक्षस था उसको तो वाराह रूपधारी भगवान ने मार डाला अब दूसरे राक्षस ने बहुत उधम मचा रखी थी वह भगवान का नाम तक नही लेने देता था उपवास व्रत भी नही करने देता था अब हिरण्य कश्यप की पत्नि को एक बालक का जन्म हुआ उसका नाम प्रहलाद था जब वह बालक पॉच वर्ष का हुआ तो उसे गूरू के पास विध्या पढने के लीये भेज दिया और उसके पिता ने भी उसे अलग अलग प्रकार की यातना दी कभी पहाड पर से गिराया कभी आग मै डाला कभी खम्बा गरम कर उसमे लपेटा लेकीन प्रहलाद ने राम का नाम लेना नही छोडा और आखिर मे भगवान ने नृसिंह अवतार धारण करके हिरण्य कश्यप राक्षस को मार डाला और प्रहलाद को बचा लीया

नृसिंह जयन्ति की विधी


वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्थी ,नृसिंह चौदस के नाम सै जानी जाती है इस दिन भगवान नृसिंह का जन्म हुआ था इस दिन उपवास रख कर जन्म के रूप मे सवारी निकालते है